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Dear December ❣️

 डियर दिसंबर, तुमसे इश्क़ क्यों है, ये बताना आसान नहीं ..तुम्हारे आते ही नए साल की गिनती शुरू हो जाती है,पर मेरे लिए तुम सिर्फ एक महीना या तारीख नहीं, एक दरवाजा हो—नए सफर, नई कहानियों और नए रास्तों का जो मेरी मंजिलों के और भी मुझे करीब लेकर जाता है ... तुम्हारी ठंडी हवाएं जब चेहरे को छूती हैं, लगता है जैसे पुराने गमों को उड़ाकर ले जा रही हो.. हर बार उसी मलबे में एक नई राह दिखाई है.. शायद इसलिए मैं तुम्हें हर बार एक उम्मीद की तरह देखती हूं.. तुम्हारे आते ही पेड़ों से गिरते पत्ते मुझे सिखाते हैं, कि कुछ छोड़ देना भी जरूरी होता है आगे बढ़ने के लिए.. तुम्हारी शफ्फाक शामों में, जब सूरज धीमे-धीमे डूबता है, मैं खुद को तुम्हारी गोद में एक बच्ची की तरह पाती हूं.. सहमी हुई, पर भरोसे से भरी...तुम्हारे साथ मैं अपना सारा बोझ हल्का कर देती हूं...तुम्हारी दस्तक हमेशा रहती है, एक दुआ की तरह, एक बदलाव की तरह.. तुम्हारी रूह की सर्दियों में जीते हुए, गुजरे हुए साल के लम्हों को फिर से जीती हूं ... ताकी इस गुजरे हुए साल की यादें छोड़कर आगे नए साल में बढ़ पाऊं .. नई उम्मीदों के साथ .. कुछ साथी जो साथ चल...

हरिवंशराय बच्चन...एक कविता...

ना दिवाली होती,
 ना पठाखे बजते
ना ईद की अलामत,
ना बकरे शहीद होते

तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता,
…….काश कोई धर्म ना होता....
…….काश कोई मजहब ना होता....

ना अर्ध देते,
ना स्नान होता
ना मुर्दे बहाए जाते,
 ना विसर्जन होता

जब भी प्यास लगती, नदीओं का पानी पीते
पेड़ों की छाव होती,
नदीओं का गर्जन होता

ना भगवानों की लीला होती, ना अवतारों का नाटक होता
ना देशों की सीमा होती ,
ना दिलों का फाटक होता

ना कोई झुठा काजी होता, ना लफंगा साधु होता
ईन्सानीयत के दरबार मे, सबका भला होता

तू भी इन्सान होता,
 मैं भी इन्सान होता,
काश कोई धर्म ना होता....
काश कोई मजहब ना होता....

कोई मस्जिद ना होती,
कोई मंदिर ना होता
कोई दलित ना होता,
कोई काफ़िर ना होता

कोई बेबस ना होता,
कोई बेघर ना होता
किसी के दर्द से कोई बेखबर ना होता

ना ही गीता होती ,
और ना कुरान होती,
ना ही अल्लाह होता,
ना भगवान होता

तुझको जो जख्म होता,
मेरा दिल तड़पता.
ना मैं हिन्दू होता,
ना तू भी मुसलमान होता

तू भी इन्सान होता,
 मैं भी इन्सान होता।

*हरिवंशराय बच्चन*

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