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Love

  बैठा हूँ उसी छत के कोने में, जहां कभी हम दोनों बैठा करते थे। वो चांद, वो सितारे, आज भी वहीं हैं, पर अब उनकी रौशनी कुछ फीकी लगती है.. तब कुछ बातें तुम्हारी होती थीं, और हम हल्के से मुस्कुरा देते थे.. तुम्हारी आंखों में शर्म का वो प्यारा सा एहसास, अब सिर्फ एक याद बनकर रह गया है.. वो चांद अब भी वही है, पर उसकी चांदनी में वो पहले सी चमक नहीं.. तारों की टोली भी अब कुछ अधूरी लगती है, जैसे हमारे रिश्ते की तरह कुछ कम हो गई हो.. कभी ये जगह हमें सुकून देती थी, अब बस यादों का भार लिए चुपचाप खामोश खड़ी है.. जहां कभी बातें होती थीं,वहा अब बस ख़ामोशियाँ घिरी रहती हैं.. यादों की गीली लकड़ियाँ, मन के किसी कोने में धीमे-धीमे सुलगती रहती हैं वो ठंडी आहटें अब भी हैं, पर वो गर्मी जो दिल को छूती थी, कहीं खो गई है आंखें अब पसीजती नहीं, वो आंसू भी शायद थक गए है.. बस एक भारीपन है, जो इस जगह से निकलने का नाम ही नहीं लेता.. अब इस छत पर आना, सुकून कम और दर्द ज़्यादा देता है.. वो समय तो बीत गया, पर यादें आज भी यहां की हर ईंट में बसी हैं.. शायद, कुछ चीज़ें वैसे ही रह जाती हैं— मद्धम, अधूरी, जिन्हें समय भी बदल नह

हरिवंशराय बच्चन...एक कविता...

ना दिवाली होती,
 ना पठाखे बजते
ना ईद की अलामत,
ना बकरे शहीद होते

तू भी इन्सान होता, मैं भी इन्सान होता,
…….काश कोई धर्म ना होता....
…….काश कोई मजहब ना होता....

ना अर्ध देते,
ना स्नान होता
ना मुर्दे बहाए जाते,
 ना विसर्जन होता

जब भी प्यास लगती, नदीओं का पानी पीते
पेड़ों की छाव होती,
नदीओं का गर्जन होता

ना भगवानों की लीला होती, ना अवतारों का नाटक होता
ना देशों की सीमा होती ,
ना दिलों का फाटक होता

ना कोई झुठा काजी होता, ना लफंगा साधु होता
ईन्सानीयत के दरबार मे, सबका भला होता

तू भी इन्सान होता,
 मैं भी इन्सान होता,
काश कोई धर्म ना होता....
काश कोई मजहब ना होता....

कोई मस्जिद ना होती,
कोई मंदिर ना होता
कोई दलित ना होता,
कोई काफ़िर ना होता

कोई बेबस ना होता,
कोई बेघर ना होता
किसी के दर्द से कोई बेखबर ना होता

ना ही गीता होती ,
और ना कुरान होती,
ना ही अल्लाह होता,
ना भगवान होता

तुझको जो जख्म होता,
मेरा दिल तड़पता.
ना मैं हिन्दू होता,
ना तू भी मुसलमान होता

तू भी इन्सान होता,
 मैं भी इन्सान होता।

*हरिवंशराय बच्चन*

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