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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

Prem...!!

प्रेम को कितने ही बार लिखने की कोशिश की है,पर ठीक प्रेम लिखने से हमेशा रह जाती हूँ। कई बार पूरा प्रेम लिख लेती
 हूँ ?और आख़िरी वाक्य पर अटक जाती हूँ  हर बार ! हर बार लगता है कि वह एक वाक्य रह गया है कहीं, किसी के इंतज़ार में, किसी की वापसी की प्रतीक्षा में .. !
वह एक वाक्य आता नहीं है कभी,उसके बदले आते हैं बहुत से प्रेम सरीखे दिखने वाले वाक्य इनके आते ही मैं पन्ना पलट देती हूँ।असल में मैंने सारा कुछ जो लिखा है, वह प्रेम सरीखा लिखा है-ठीक प्रेम नहीं,क्योंकि ठीक प्रेम तो अभी भी कहीं-किसी चौखट पर खड़ा है किसी के इंतज़ार में...!


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