वो तो मेरा बस नहीं चलता वर्ना, इन बेखौफ़ हवाओं के पर कतर देता जो तुम्हारे ज़ुल्फों को छू के गुजर रहीं हैं!
क्यों ख़ामख़ा इस हवा के झोंके पर अपना ग़ुस्सा उतार रहें हो? खुले आसमान के तले बैठी हूँ मैं! ऐसे मे वो ज़ुल्फों को छू के न गुज़रे तो क्या करें?
हमम!सच कहा! हवा का झोंका हैं वो!
ताउम्र बालों को सहलाने का हक़ तो उसे ही मिलना था!
मैं ठहरा पानी जैसा! कोई हाथ मे भी लेता तो मैं फिसल निकलता था!
छोडो... वहाँ देखो! उस पेड़ की टहनी पर! लगता हैं वो परिंदा जख्मी हो गया हैं!
दरबदर की ठोकरे खाया हुआ हैं! जख्मी तो होगा ही! तुम्हें तो आज भी परिंदो को पिंजरे में कैद करना अच्छा लगता हैं ना?
हाँ!आज भी मेरे पिंजरे में हैं कुछ पंछी!
तुम उन्हें रिहा क्यों नहीं कर देती? मुझे तो हरगिज़ पसंद नहीं हैं किसी को कैद में रखना!!
तुम ग़लत समझ रहें हो!
मैंने उन्हें पिंजरे में ज़रूर रखा हैं लेकिन कैद में नहीं!अब मैं पिंजरा खोल भी देती हूँ तो वो फिर लौटकर आ जाते हैं! ऐसा कैसे हो सकता हैं? आखिर किसी को जंजीरे कैसे पसंद आ सकती हैं?वो तो मुझे नहीं पता! हो सकता हैं उन्हें मेरी मोहब्बत पर यकीन हो गया हो! पर तुम ये नहीं समझोगे!
क्योंकि तुमने तो कभी ज़ंजीरे आजमाई हि नहीं! खैर....!!
Comments
Post a Comment