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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

Wo raat....

पूरणमासी की रात को जब मैं तुम्हारा हाथ अपने हाथों में लिए चंद्रमा की पूर्णता में
अपना निःछल प्रेम देख रही थी ,तब तुमने नीरवता को खण्डित करते हुए कहा- प्रेम शाश्वत है हिमालय की सदानीरा नदियों सा
अनवरत प्रवाह लिए बहता है,
तुमने समझाया था मुझे कि मैं चाहूँ तो आगे नई जिंदगी शुरू कर सकती हूँ और मैं स्तब्ध सी टकटकी लगाए देखती रही..!!
लेकिन कुछ टूट गया था खंड-खंड..मैं तुम्हारा अतीत बन रही थी भविष्य के सुखद पल मुझे कोसेंगे कि काश मैं पहले मिली होती आज तो तुम्हे बँटने ना देती ...
मुझे भी तुम्हारे अतीत के पष्ठों पर हस्ताक्षर बनना होगा बैठना होगा खण्डित मूर्ति सा तिरस्कृत तुम्हारे जीवन के हाशिए पर बने तुलसाने में ..!
तुम्हारे भविष्य के पूजागृह में कोई और विराजेगा जो देखेगा पूरणमासी के पूर्ण चंद्र में अपने प्रेम की पूर्णता...
सुनो उसे सच बता देना-अतीत के शिलालेखों पर अंकित निर्दोष हस्ताक्षरों का इतिहास और
ये भी कि प्रेम शाश्वत है कभी चुकता नहीं और जरूरी नहीं एक बार ही हो मेरी तरह उसे टूटने मत देना बिखरने मत देना...!

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