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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

Kuch Lamhe...

व्यतीत करना चाहती हूँ ...सिर्फ एक दिन...
खुद के लिये...जिसमें न जिम्मेदारियों का दायित्व हो, न कर्त्तव्यों का परायण ,न कार्य क्षेत्र का अवलोकन हो ,न मजबूरियोँ का समायन

बस मैं , मेरे पल ..मेरी चाहतें और मेरी तन्हाई
एक कप चाय से हो मेरे दिन की शुरुआत भीगकर अतीत के लम्हों में खोजू अपने जज्बात
भूल गई जो जिंदगी जीना उसे फिर से याद करु..सबकी खातिर छोङ चुकी जो ,उन ख्वाईशों की बात करु..

उलझी रहू बस स्वयं में ही न कोई हो आस पास...जी लू जी भर उन लम्हों को जो मेरे हो सिर्फ खास...जैसे चिङिया चहक रही हो खुले आसमान सी बस्ती में..मन का पहनू, मन का खाऊं न हो और किसी का ख्याल...भूल गई हू जो जीना मैं फिर से न हो मलाल..

शाम पङे सखियों से गपशप
और चाट पूरी खाऊ डाक्टर के सारे निर्देशों को
बस एक दिन भूल जाऊँ..मस्त हवा संग बाते करु खुली सङक पर यूंही चलू.. बेफिक्री की राह पकङकर अपनी बातों की धौंस धरु..
रात नशीली मेरे आंगन इठलाती सी आये
लेकर अपनी आगोश में चांद पूनम का दिखलायें..सोऊं जब सपने में मुझे वो राजकुमार आये परियों की दुनियां से होकर ,जो मेरे रंग में रंग जाये..एकसाथ में बचपन ,यौवन फिर से जीना

काश.!
मिले वो लम्हेँ मुझको एक दिन बस जो फिर से जीना चाहती हूं...!

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