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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

कभी कभी...

कभी कभी आँखें ढूँढ़ती हैं...
कुछ निहारने को ,
और कुछ नहीं मिलता
इस बीच बिन बताए चश्मा कुछ निहार लेता है...
आँखों को जब भी कुछ मिलता है
तो चश्मे से मिलवाती हैं “ कुछ ” को ।

एक दिन ,
बिन बताये
दोनो ने एक ही “ कुछ ” को निहारा
किसी को “ कुछ ” ने भी निहारा
चश्मा समझता है उसको ,
आँखें समझती हैं उसको ,
तब से पता नहीं क्यों ...
दोनो में एक खटपट सी रहती है
और “ कुछ ”...

सुलह भी नहीं करवाता ...!!


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