Skip to main content

Featured

तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

Love and attachment..

जब लेने की भावना होती है तो उसे लगाव कहते हैं ..जब देने की भावना होती है उसे प्रेम कहते है ..भावनात्मक अथवा गहरा लगाव और प्यार वास्तव में परस्पर जुड़े होते हैं लेकिन वे आंशिक और विशिष्ट रूप से भिन्न होते हैं..लगाव वह है जहाँ आप आत्म-केंद्रित हो जाते हैं।

आप कुछ विशेष चीजों के साथ अपनी जरूरतों को पूरा करते हैं। वहीं, प्रेम एक ईश्वरीय शब्द और क्रिया है जिसे ढूंढना बहुत कठिन है।

लगाव अपेक्षा के पैरो पे खड़ा होता है। यदि अपेक्षा टूटी तो लगाव भी टूट जायेगा। और वंहा जुड़ने की दिशा में लग जायेगा जंहा इसकी अपेक्षाएं पूरी होती हो...

अपेक्षाएं लेने के भाव से जुडी होती है और जंहा मनमुताबिक लेने की अपेक्षाएं पूरी न होती हो वंहा से लगाव जाना शुरू हो जायेगा..और जंहा मिलने के अवसर खुलते दिखाई दे वंहा न चाहते हुए भी जुड़ना शुरू हो जायेगा..इसी का नाम लगाव है.. वहीं प्रेम इसके बिल्कुल उल्टी चीज़ होती है ..

प्रेम में लेने का नहीं देने का भाव होता है। लगाव में भी देने का भाव होता है लेकिन लेने की शर्त पे टिका होता है। इसलिए यदि उसे लेना नहीं मिलता तो उसका देना भी ख़तम होने लगता है। लेकिन न मिलने पर भी और अपेक्षाओं के पूरे ना होने पर भी यदि देना जारी रहता है
और उस देने में कोई कर्तव्य पूरी करने जैसी मजबूरी भी नहीं है तो वो ही प्रेम है .. क्यूंकि प्रेम बेशर्त होता है..
लगाव कहता है - मै और मेरे लिए। प्रेम कहता है - तू और तेरे लिए। लगाव कहता है तू मेरे लिए है, प्रेम कहता है मै तेरे लिए हु..

लगाव दूसरे का साथ 'सुख' और दूसरे के बिना 'दुःख' है। प्रेम दूसरे का साथ 'नृत्य करता साक्षात भगवान्' और दूसरे के बिना 'उसकी शांत मूर्ति वाला मंदिर' है। साक्षात भगवान् ना होने पर भी मंदिर में दुःख नहीं शान्ति होति है...!!



Comments

Popular Posts