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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

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कुछ पन्नो को जाने क्यों पलटना असंभव सा हो जाता है ..उन्हें पढ़ते हुए लगता है तुम्हारा चेहरा पढ़ रही हूं ..अब उन्हें पलट देना तुमसे मुँह फेर लेने जैसा है...

और कहीं से इस पढ़ने और ठहर जाने के साथ आकर बैठ जाती है पढ़े हुए को न समझ पाने की मृगतृष्णा ...

पता है कभी-कभी ये पढ़ना ,ठहरना ,अटकना ये सब किसी मोनोटोनस पैटर्न सा लगता है पर वह मृगतृष्णा इस सम्पूर्ण नाटक को हर बार एक नया किरदार दे जाती है..इन्ही वजहों से मैंने आज तक जाने कितनी किताबें अधूरी छोड़ दी..

वो “ तुम से ”पन्ने अब

कुछ और पढ़ने ही नहीं देते..!!


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