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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

Sky ...

आकाश जाने कहाँ तक फैला है ...
मुझे क्या पता पर अपनी नज़रों के क्षेत्रफल जितने बड़े आकाश में एक बड़ा सा प्लाट मेरा है..

धरती की कुछ उलझने मिलने आयी थीं न.. उन्होंने ही कल्पना को तोहफ़े में दिया था ..मैंने वहाँ एक पेड़ भी लगाया है .. उस पर लगे दोनों फल जैसे कभी पकते ही नहीं ...
एक दिखता है जब आकाश नीला होता है ... एक आकाश के काले होने पर ..दोनों ने अपनी सहूलियतों के अनुसार रंग चुन लिए हैं ..!

क्या पता इन दोनों की आपस मे कोई दुश्मनी हो पर नीले वाले में अकड़ ज़्यादा है तुम्हारी तरह

क्योंकि वो कभी काले आकाश में नहीं आता
पर काले वाले को मैं रोज़ ही थोड़ी देर के लिए नीले आकाश में पाती हूं ...वैसे तुम्हें नहीं लगता दोनों ही बहुत इंसानी हो रहे हैं ...

(आकाश तुम्हारा ख़्याल है , काले आकाश वाली मै ... और शायद “ आजकल ” नीले आकाश वाले तुम ...)


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