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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

ईश्वर...

एक भटकाव मेरे जीवन को सदा परिभाषित करता रहा है , जिसमें जीवन अलगाव से जीती रही मैं - रातों से सुबह के पते मांगती रही और सुबह में ढूंढती रही निशानियां रात की..

मकानों में रहती रही.... उन्हें घरों में बदलती रही , लेकिन मेरे अंदर सिर्फ खंडहर ही घर किये रहा। उस खंडहर में भी तुम्हें ही तलाशा मैंने...

तुम्हारा नाम अनंत काल से जपा गया है कि मुक्ति को प्राप्त हो सकें सब जीवधारी..

मैं तो अपनी मुक्ति की परिभाषा की परिधि भी पूर्णतया तय नहीं कर पाई..!

कई बार मैं सिर्फ इस बात से भी मुक्त हो जाना चाहती हूँ कि जब मैं टूट कर बिखरुं तो मैं यह तुम्हारी मूर्ति के समक्ष न होने दूँ ...जो सिर्फ पथराई आँखों से मुझे रोते -बिलखती , नीरस बुत बनी देखती रहे ..!!

मैं अपनी मूढ़ ,कोमल, अबला आस्था की कैद से मुक्त हो जाना चाहती हूँ ..

मैं चाहती हूँ कि अंधेरों में जो बसर ढूंढ रही हूँ मैं, कम से कम वहाँ तो तुम्हारा नामो निशां न हो !

मुझे अंधी आस्था के लग्गे से टंगे उजाले नहीं तलाशने ..

मुझे मूर्खता और आस्था , विश्वास और अन्धविश्वास के बीच का अज्ञात सफ़र, नंगे पांव तय करना है और भटकना है तब तक, जब तक मैं एक किनारा न पकड़ लूं..

मुझे अब तुम्हारी खोज नहीं करनी ईश्वर ....

तुम जो चाहो.. तो मुझे उस किनारे बैठे मिल जाना....

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