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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

कुछ अनकही बाते

 सोचती हूं कहूं तुमसे ...की क्यों न एक बार मैं कोई बीज और तुम पानी से बन जाओ...फिर मैं तुम्हें सोख लूं पूरी तरह और हम मिट्टी की रुकावटों को तोड़ कर ..एक पेड़ की अपनी दुनिया उगाएंगे...दूर कहीं किसी अनजाने से टापू पर... और गुज़ारे एक उम्र उस पेड़ के किसी तिनके पे दो पत्ते से बन कर साथ साथ..

मगर फिर दिल ये सोचकर मेरे होठों को ये कहने से रोक देता है ....की कहीं तुम बसंत के बुलाने पर मुझे अकेला छोड़ कर चले गए तो ..!!

बहुत कुछ खो जाने के बाद होते खो देने का डर हमेशा साथ देता है ... बस कभी कभी कुछ बातें वैसे ही रहनी देनी चाहिए..

अनकही...!
..

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