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बैठा हूँ उसी छत के कोने में, जहां कभी हम दोनों बैठा करते थे। वो चांद, वो सितारे, आज भी वहीं हैं, पर अब उनकी रौशनी कुछ फीकी लगती है.. तब कुछ बातें तुम्हारी होती थीं, और हम हल्के से मुस्कुरा देते थे.. तुम्हारी आंखों में शर्म का वो प्यारा सा एहसास, अब सिर्फ एक याद बनकर रह गया है.. वो चांद अब भी वही है, पर उसकी चांदनी में वो पहले सी चमक नहीं.. तारों की टोली भी अब कुछ अधूरी लगती है, जैसे हमारे रिश्ते की तरह कुछ कम हो गई हो.. कभी ये जगह हमें सुकून देती थी, अब बस यादों का भार लिए चुपचाप खामोश खड़ी है.. जहां कभी बातें होती थीं,वहा अब बस ख़ामोशियाँ घिरी रहती हैं.. यादों की गीली लकड़ियाँ, मन के किसी कोने में धीमे-धीमे सुलगती रहती हैं वो ठंडी आहटें अब भी हैं, पर वो गर्मी जो दिल को छूती थी, कहीं खो गई है आंखें अब पसीजती नहीं, वो आंसू भी शायद थक गए है.. बस एक भारीपन है, जो इस जगह से निकलने का नाम ही नहीं लेता.. अब इस छत पर आना, सुकून कम और दर्द ज़्यादा देता है.. वो समय तो बीत गया, पर यादें आज भी यहां की हर ईंट में बसी हैं.. शायद, कुछ चीज़ें वैसे ही रह जाती हैं— मद्धम, अधूरी, जिन्हें समय भी बदल नह
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कुछ अनकही बाते
जब ज़िन्दगी हमें कटघरे में ला कर खड़ा कर देती है तब वो लड़ाई हमें खुद ही जीतनी होती है वो भी अपने आप से..हां आजकल बस ऐसी ही कुछ लड़ाई छिड़ी हुई है .. ज़िन्दगी की इस कोर्ट में मै ही सबूत हूं और गवाह भी मै ही.. और जज कौन है ? कौन तय करेगा इस बात को की जो भी हुआ अब तक जो भी मेरे फैसले थे किसी पर विश्वास करने से लेकर खुद को उसे सोपने तक कितना सही कितना गलत ? नही जानती ?
हां पर कई बार इस सही गलत के कटघरे मे मैने खुद को कई बार पाया है .. लोगो ने इस समाज ने कितनी बार ही तो मुजरिम करार दे दिया है .. तुम एक स्त्री हो क्यों ऐसा किया ? क्या तुम्हे हक था ये सब करने का ?
हां मैने कितनी बार ही तो ये बाते सुनी है हर बात सुनी हैं.. इल्ज़ाम तो बहुत से हैं पर अब कोई सफाई नही देती ..
ठीक है हां मैं शायद गलत थी ?
पता नही ..!
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👌👌
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