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तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ?? : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं ! : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं
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कुछ अनकही बाते
जब ज़िन्दगी हमें कटघरे में ला कर खड़ा कर देती है तब वो लड़ाई हमें खुद ही जीतनी होती है वो भी अपने आप से..हां आजकल बस ऐसी ही कुछ लड़ाई छिड़ी हुई है .. ज़िन्दगी की इस कोर्ट में मै ही सबूत हूं और गवाह भी मै ही.. और जज कौन है ? कौन तय करेगा इस बात को की जो भी हुआ अब तक जो भी मेरे फैसले थे किसी पर विश्वास करने से लेकर खुद को उसे सोपने तक कितना सही कितना गलत ? नही जानती ?
हां पर कई बार इस सही गलत के कटघरे मे मैने खुद को कई बार पाया है .. लोगो ने इस समाज ने कितनी बार ही तो मुजरिम करार दे दिया है .. तुम एक स्त्री हो क्यों ऐसा किया ? क्या तुम्हे हक था ये सब करने का ?
हां मैने कितनी बार ही तो ये बाते सुनी है हर बात सुनी हैं.. इल्ज़ाम तो बहुत से हैं पर अब कोई सफाई नही देती ..
ठीक है हां मैं शायद गलत थी ?
पता नही ..!
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