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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

यूंही

हम चाहते है न हमारे अपने जो हमें समझे, जिसके सामने हम पूरी तरह खुल सके। लेकिन कोई कितना ही अपना क्यों न हो, भावनाओं में बहकर कभी भी अपनी सारी बातें किसी से भी नहीं करनी चाहिए! अपनी पसंद, ना पसंद और ख़ासकर अपनी कमज़ोरियां कहीं ज़ाहिर नहीं करनी चाहिए!


चाहे प्रेम हो, चाहे दुःख हो या चाहे ख़ुशी के लम्हें.. ज़्यादातर इंसान यकायक से जो कुछ भी मिल जाए उसे हज़म नहीं कर पाता और किसी न किसी ऐसे साथी की तलाश में रहता है जिससे वोह अपनी सारी बातें कह सके! महज़ भ्रम है, मायाजाल है ऐसी तलाश!.. इक बेवकूफी से अधिक कुछ नहीं!


किसी के भी सामने सोच समझकर खुलना चाहिए! एक ईश्वर के सामने ही पारदर्शिता रखनी चाहिए। वहीं आपके गुनाह, गलतियां समेत आपका स्वीकार कर सकते है और सही मार्ग भी बतला सकते है!


बाकी सब जो आपको जानते हो वो आपकी वहीं रग पकड़ेंगे जो पहले से ही कमज़ोर हो! उन्हीं ज़ख्मों को कुरेदकर रख देंगे! जिन ज़ख्मों को आप मरहम की आस में दिखायेंगे! जिसकी टीस उम्र भर नहीं जायेंगी! भावनाएं सबके अंदर होती हैं। जिसका हद में बहना ही उचित है!


ना सुनामी, ना दरिया का पानी !...

सबसे ख़तरनाक बहाव भावनाओं का है।

जिस में सब बिना तैरना सीखें निरंतर बहते जाते है!

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