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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

स्त्री

कई स्त्रियों को देखा है मैंने अपेक्षाओं के बोझ तले धस्तें हुए, उसके बोझ को समेट हुए अपने जीवन का लक्ष्य पूरा करते  हुए ..और बदले में और अपेक्षाओं की टोकरी या फिर अवहेलना से भरा बोरा पाते हुए..समाज में स्त्रियों के साथ व्यवहार करने के क्या दायरे है ये तय करना किसकी प्राथमिकता है; हम जैसे पितृतंत्र समाज की या फिर उन स्त्रियों की जो अपना स्वत: झोंक कर एक विश्व निर्माण करती है... और इस विश्व निर्माण में उनकी अवहेलना हम पुरुष ही नहीं अपितु वो स्त्रियां भी करती है जो एक दूसरी स्त्री को अपनी लाई हुई संपत्ति समझ उनके लिए हुए हर निर्णय पे अंकुश लगाती है...!!

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