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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

कुछ पन्ने डायरी के

ढलती दोपहर के साथ ही आंगन में लगी बेला मुझे पुकारने लगी, तनिक भी इच्छा नहीं थी उससे बतियाने की,

लेकिन इतना आसान कहां है मन की करना।


शाम के संग भी तुम्हारी स्मृतियां धूमिल होती जा रही थी और संग-संग मेरे बेचैनियों को उजागर कर रही थी,

लेकिन बेला कहां मानने वाली थी मुझे संग बिठा कर बिन पूछे ही अपने कुछ फूलों को चुन मेरे बालों में लगा दिया,

कितनी बार रोका मैने लेकिन इतना आसान कहां है मन की करना।


उसके फूलों से आती भीनी सुगंध मुझे तुम्हारे देह की गंध को भुलाने पर विवश कर रहे थे,

जो हर भोर मुझे किसी अप्सरा की भांति मुझे जगाने आ जाती है,

प्रयत्न तो बहुत किए मैंने उन्हे समेटने की लेकिन इतना आसान कहां है मन की करना।


उसकी डालियां मुझे आलिंगन में ले व्यक्त कर रही थी अपने दिन भर की थकान,

जो मुझे खींच रहे थे तुम्हारे आलिंगन की स्पष्टता की ओर,

अपितु उसकी निरंतर बकबक कहां बोध होने दे रही थी ,

लेकिन इतना आसान कहा है अपने मन की करना।


बेला हल्के से माथे को सहला कर मुझे अपनी बातों में लगा बहलाने का प्रयत्न कर रही थी,

लेकिन तुम किसी ज़िद्दी दाग़ की भाती मेरे ह्रदय में जा बैठे हो

स्वयं से अलग करना तो शिव के धनुष तोड़ने सा जान मालूम पड़ रहा था,

हालांकि इतना आसान कहां है मन की करना।


स्वयं भी तो अवगत हो ना तुम?? 

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