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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

अकेलापन

अकेलापन  हर रात किसी अबोध बालक सा

आकर बैठ जाता है दुआर पर

खिलौने बिछाकर पूछता है

कौन सा खेल खेलूँ

या कौन सा खेल दिखाऊँ?

मैं एक टक ताकती हूँ

फिर आँखें मूँद लेती हूँ

रात्रि आँखों में बन्द हो जाती है

दिन चींटियों सा चढ़ता है

लगातार

बिना डरे

बिना थके

उठना, गिरना , संभलना कितना दारुण है...

हर बार लगा कोई होगा जब संभाल लेगा इस गिरते हुए को 

पर अब देर हो चुकी हैं बहुत देर मैं अकेलेपन की गहराई में इतना डूब गई हूं जैसे कोई को  जाता है समंदर की गहराई में कभी न मिलने के लिए! 


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