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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

ठीक तुम्हारे पीछे - मानव कौल book review in my words

मानव कौल मेरे पसंदीदा  लेखकों मैं से एक है हाल में उनकी किताब "ठीक तुम्हारे पीछे" पढ़ी यह किताब  हमें एक ऐसी यात्रा पर ले जाती है जो हमारे भीतर के अनकहे भावनाओं और रिश्तों के उलझाव को बड़ी गहराई से छूती है..यह किताब उन छोटी-छोटी यादों, अनुभवों और घटनाओं का संग्रह है, जो किसी न किसी रूप में हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती हैं..!


कहानी में मानव ने बेहद सरल और सहज भाषा का प्रयोग किया है, जो पाठकों को सीधे उनके अनुभवों से जोड़ती है.. "ठीक तुम्हारे पीछे" में लेखक ने मानवीय रिश्तों की नाजुकता और उनके बदलते रूपों को दर्शाया है.. कहानी के पात्रों के माध्यम से जीवन की अस्थिरता, प्रेम की अधूरी संभावनाओं, और समय के साथ बदलते संबंधों को बहुत संवेदनशीलता के साथ उजागर किया गया है..!


मानव कौल की यह किताब एक आत्मविश्लेषण की यात्रा है.. यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम जो निर्णय लेते हैं, जो बातें अनकही रह जाती हैं, और जो भावनाएँ हम भीतर दबाकर रखते हैं, वे कैसे हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं..!


कहानी में गहराई के साथ एक नाज़ुक भावनात्मक प्रवाह है, जो हर पाठक को कहीं न कहीं छू जाता है.. "ठीक तुम्हारे पीछे" सिर्फ एक किताब नहीं, बल्कि जीवन के कई अनसुने और अनछुए पहलुओं का प्रतिबिंब है..!!


यह किताब उन लोगों के लिए है जो जीवन की जटिलताओं और रिश्तों की परतों को समझने और महसूस करने की क्षमता रखते हैं...मानव कौल की यह रचना पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है, और पढ़ने के बाद एक ऐसी छाप छोड़ती है जो लंबे समय तक दिल में बसी रहती है..!

तुम्हें पा लेने की चाह में,

खुद को खोने का डर भी था,

पर इस सफर में,

मैं बस चलता रहा...

ठीक तुम्हारे पीछे..!!



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