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तुम

 तुम भागते क्यों हो? : डर लगता है? : किस बात का डर लगता है ? मुझसे, या खुद से? प्यार से… या मेरी आँखों में दिखाई देने वाली अपनी परछाई से? : हां शायद ??  : अच्छा ? अजीब हो तुम…अब तक भीगने का सलीका नहीं आया तुम्हें…बारिश से भी, मोहब्बत से भी ! तुम सोचते हो मैं तुम्हें बाँध लूँगी? है न ?? : कितने सवाल पूछती हो ?? सवालों की पुड़िया कही की ! चलो मैं जा रहा हूं !  : वापस भाग लिए तुम न ! : क्या मैं न! : कुछ नहीं 

अकेला इश्क ..

 तुम्हारे जाने के बाद, सोचती हूं कितनी अनकही बातें अनसुनी रह गई...कितना कुछ कहना था मुझे तुमसे ... हां मेरी कुछ बाते जो अधूरी रह गई तुम्हे पता है वो अधुरी सी बाते आज भी शोर कर रही हैं, खुद को सुनने के लिए मगर अब,घोंट दिया है उनका दम, लबों की खामोशी ने..

क्या तुमने कभी सोचा क्या हुआ होगा उस मोड़ पर,

जहाँ से तुमने राहें बदली,तुमने एक बार मुड़कर देखना भी ठीक नहीं समझा ना .. कभी कभी सोचती हूं क्या करू अब इन बातों का जो आधी अधूरी है मेरी तरह 

सुनो तुम्हे पता है जिस मोड़ से तुम मुड़े थे वहाँ इश्क अब ठहर गया है और मैं अब आगे निकल आई हूं उसे वही छोड़ कर .. ऐसा नही बहुत बार पीछे मुड़ कर भी देखा था .. और कितनी बार वापस लौट कर उस मोड़ पर इस आस में की तुम शायद उस अकेले रह गए इश्क़ के लिए आ जाओ ..

अब तो मेरी वापस आने की दो राहे बन गई है हर बार, आगे बढ़कर उस अकेले से इश्क़ का एकांत मुझे पुकार लेता है सोचती हूं क्या तुम्हे उसकी कोई पुकार सुनाई नही दी कभी ... ? नही अब तो मैंने ये सोचना भी बंद कर दिया है की तुम्हे कभी उसकी पुकार भी सुनाई देगी .. अब उस एकांत में मैं भी पिघल जाती हूं.. उस इश्क़ के अकेलेपन का कड़वा ज़हर थोड़ा मैं भी चख लेती हूं और वो खुद को पाने के लिए, ना जाने अब कितने दिन तक भटकेगा...

तुम तो चले गए उस मगरूर प्रेमी की तरह,

जो आधी रात को सबकुछ छोड़ कर, चला जाता है ...वापस ना आने के लिए उसके जाने वाली हर पदचाप, धड़कनो पर बेतहाशा चोट करती हुई, अट्टहास कर बस यही कहती हैं,कि


अटल सत्य तो एकांत ही था.. ! इश्क़ कभी था ही नही 


तुमने सोचा कभी, हमारी उस आखिरी बात का जवाब, जो मेरी खामोशी थी,वो खामोशी की चादर आज भी वैसी ही है उसने बंद खामोशी की मुट्ठी में, मीठी मोहब्बत के कितने तीखे लफ़्ज़ कैद है जिन्होंने भर दिया ज़हर मेरी नस नस में, और दे दिए पतझड़ आँखों को...

अजीब खूबी है न, इश्क की, कि जब प्रेम में पतझड़ आता है तो सब हरा हो जाता है.. क्यों कि उम्मीद रहती हैं, आज वक्त बुरा है,निश्चित ही अब इसके बाद सब अच्छा ही होगा,

तुमने सोचा कभी, कि कैसे निकलूंगी में इस दर्द से बाहर ,जो अब औरों के लिए महज़ मजाक है, मगर वो तुम्हारा अपना था, जिसमे आधी भागीदारी तुम्हारी थी...

इस दर्द का अंत नहीं होगा, बस अतीत होगा,

जो रह रह कर कुरेदेगा तुम्हे शायद नही पता की तुम्हे कभी इस बात का एहसास भी होगा की नही 

की मैं कितनी रातें अब बस, जाग कर गुजारती हूं ...

सुनो ...

कुछ कहूँ 

अब किसी और को इतना सोचने पर मजबूर मत करना...मोड़ आए तो साथ में ठहरना उसके साथ,यूं छोड़ कर मत निकल जाना उसे जिसके साथ इस मोड़ तक आए थे...

    

खैर!...शायद फिर गलत हूँ मैं, 

खुदा..!... कब सोचता है.

वो तो बस फैसले करता है, और बंदों को हर तकलीफ हर दर्द से बढकर यही सोचकर, सब स्वीकार करना होता है,

कि, खुदा ने सोचा है, तो बेहतर ही होगा....

हां तुमने सोचा होगा तो बेहतर ही होगा ...!!




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